दिवाली पर पटाखे चलाना भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। क्या आप जानते हैं कि भारत में तमिलनाडु के शिवकाशी को पटाखों की राजधानी माना जाता है? लेकिन शिवकाशी में पटाखों का व्यापार कैसे शुरू हुआ? एक समय था जब यह कारोबार 6,000 करोड़ रुपए का था, और आज यह किस प्रकार बदल रहा है?
शिवकाशी: पटाखे… दिवाली के इस उत्सव से जुड़ी वह परंपरा है जो नन्हे-मुन्नों से लेकर बड़े-बुजुर्गों तक सबको आनंदित करती है। हालांकि, आजकल पटाखे चलाने या न चलाने को लेकर काफी बहस होती रहती है। फिर भी, क्या आप जानते हैं कि भारत में पटाखों की राजधानी तमिलनाडु का शिवकाशी है? यहां पटाखों का निर्माण कैसे शुरू हुआ, कैसे यह कारोबार बढ़ा और एक समय में 6,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया।
पटाखों का इतिहास और भारत में आगमन
पटाखे या आतिशबाजी की शुरुआत का श्रेय चीन को दिया जाता है। बारूद का आविष्कार छठी से नौंवी सदी के बीच तांग वंश के समय हुआ, और यह भारत में मुगलों के साथ आया। बाबर ने अपने साथ बारूद लेकर भारत में प्रवेश किया, और अकबर के समय में आतिशबाजी समारोहों का हिस्सा बन गई। चीन में बारूद को बांस में भरकर फोड़ा जाता था, लेकिन भारत में मिट्टी के बर्तनों और कागज ने बांस की जगह ले ली।
शिवकाशी कैसे बना पटाखों की राजधानी
शिवकाशी से पहले पटाखे बनाने के कारखाने अंग्रेजों के समय में कलकत्ता में स्थापित हुए थे। वहां की माचिस फैक्ट्रियों ने पटाखे बनाने का काम शुरू किया। शिवकाशी के पी. अय्या नादर और उनके भाई शामुंगा नादर 1923 में कलकत्ता से लौटकर जर्मनी से मशीनें मंगाकर 'अनिल ब्रांड' और 'अय्यन ब्रांड' नाम से पटाखे बनाने का काम शुरू किया। देखते ही देखते, शिवकाशी देश की पटाखा राजधानी बन गया।
घटता जा रहा है पटाखे का कारोबार
वर्तमान में, शिवकाशी में करीब 8,000 छोटी-बड़ी पटाखा फैक्ट्रियाँ काम कर रही हैं, जिनका वार्षिक कारोबार लगभग 1,000 करोड़ रुपए है। एक समय में यह कारोबार 6,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया था, और भारत से बड़ी मात्रा में पटाखों का निर्यात भी होता था। ग्रीन पटाखों के आगमन और बदलते समय के साथ यहां के कारोबार का तरीका भी बदल रहा है, और मौजूदा दौर में पटाखा उत्पादन में 40% से ज्यादा की कमी आई है।