महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024 में महायुति (भाजपा-शिवसेना-शिंदे-एनसीपी-अजित पवार) को प्रचंड बहुमत मिलने और महाविकास अघाड़ी (एमवीए) के 55 सीटों तक सीमित रहने के कई कारण हो सकते हैं।
मुंबई: महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024 के नतीजों में महायुति (भा.ज.पा.-शिवसेना-शिंदे-एनसीपी-अजित पवार) को प्रचंड बहुमत मिलने के बावजूद कई फैक्टर्स थे जो बीजेपी और उसके सहयोगियों के खिलाफ जा रहे थे, जैसे बीजेपी के खिलाफ विरोधी लहर, शिवसेना और एनसीपी के तोड़ने के आरोप और मराठा आंदोलन से नाराजगी। इसके बावजूद महायुति कैसे सफल रही, इसके पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं, जो निम्न प्रकार हैं।
1. लड़की बहिन योजना और टोल न वसूलना
भा.ज.पा. के नेतृत्व में महायुति सरकार ने "लड़की बहिन योजना" को लागू करने का जो फैसला लिया, वह चुनावी दृष्टि से काफी सफल साबित हुआ। इस योजना के तहत राज्य की महिलाओं को सीधे बैंक अकाउंट में धनराशि भेजी जा रही थी, जिससे उनका जीवन सरल बना और वे आर्थिक रूप से सशक्त हुईं। इस पहल का सीधा असर यह हुआ कि महाविकास अघाड़ी के कोर वोटर्स, जो खासतौर पर महिलाएं थीं, उन्होंने भी महायुति के पक्ष में वोट डाले।
यह योजना महाराष्ट्र के चुनावी परिदृश्य में अहम भूमिका निभाती है, क्योंकि इससे महिलाओं के घरों में आर्थिक लाभ हो रहा था और वे महायुति सरकार को अपने पक्ष में मानने लगीं। इससे पहले मध्यप्रदेश में भी "लाडली बहना योजना" को लेकर बीजेपी को जबरदस्त जीत मिली थी, और महाराष्ट्र में "लड़की बहिन योजना" का असर बिल्कुल वैसा ही हुआ।
इसके अलावा, महायुति सरकार ने टोल फ्री करने जैसी अन्य योजनाएं भी लागू कीं, जिनका लाभ पुरुष मतदाताओं को मिला। टोल प्लाजाओं को टोल फ्री करने से वाहनों के मालिकों और आम लोगों को राहत मिली, जिससे इन मतदाताओं का समर्थन भी महायुति को मिला।
2. शिंदे को सीएम बनाना
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि भाजपा द्वारा एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाना और उन्हें लगातार बनाए रखना, एक रणनीतिक मास्टरस्ट्रोक साबित हुआ है, जिसने महाविकास अघाड़ी (एमवीए) को जबरदस्त झटका दिया। शिंदे मराठा समाज के प्रमुख नेता हैं, और भाजपा ने उनकी इस पहचान को पूरी तरह से भुनाया। भाजपा ने यह सुनिश्चित किया कि शिंदे को मुख्यमंत्री बनाए रखने से मराठा समुदाय का समर्थन उसे मिलता रहेगा, और इससे पार्टी को मराठा वोट बैंक में मजबूती मिली।
भा.ज.पा. ने समय-समय पर यह संदेश भी दिया कि शिंदे दोबारा मुख्यमंत्री बन सकते हैं, जिससे मराठा समाज के बीच उनके प्रति एक सकारात्मक भावना बनी रही। जब मराठा आंदोलन में जरांगेर पाटील की भूमिका के बाद महाविकास अघाड़ी खुश थी, भाजपा ने शिंदे को अपना चेहरा बनाया और विपक्ष को बुरी तरह से मात दी। इससे भाजपा ने न केवल एमवीए को परास्त किया, बल्कि शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) को भी कमजोर कर दिया।
3. भाजपा-शिवसेना का गठबंधन
महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा और शिवसेना के बीच गठबंधन की शुरुआत 1989 में हुई थी, जिसका उद्देश्य कांग्रेस के खिलाफ एक मजबूत विपक्ष खड़ा करना था। इस गठबंधन का मुख्य आधार हिंदुत्व की विचारधारा था, जो दोनों दलों को एक साथ लाने में सफल रही। हालांकि, समय-समय पर इस गठबंधन में उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन दोनों दलों के कोर वोटर एक ही समुदाय से जुड़े हुए थे, जिससे उनका रिश्ता कायम रहा।
लेकिन 2019 में उद्धव ठाकरे ने भाजपा से नाता तोड़कर महाविकास अघाड़ी (एमवीए) में शामिल होने का निर्णय लिया। इससे शिवसेना के कोर वोटर में नाराजगी फैल गई, क्योंकि कई समर्थक यह मानते थे कि उद्धव ने हिंदुत्व के मूल सिद्धांतों से समझौता किया था। भाजपा और शिवसेना के रिश्ते में दरार आने के बाद, 2022 में एकनाथ शिंदे ने भाजपा के साथ मिलकर शिवसेना (शिंदे गुट) का गठन किया, जिससे शिवसेना के असली समर्थकों ने अपने पुराने हिंदुत्व सिद्धांतों के प्रति विश्वास जताया।
4. राज्य में बंटवारा नहीं चाहते मतदाता
महाविकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन में कांग्रेस, एनसीपी (शरद पवार गुट) और शिवसेना (उद्धव गुट) तो शामिल थे ही, लेकिन उन्होंने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में आईएनडीआई (INDIA) गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। यह गठबंधन विभिन्न छोटे दलों और स्वतंत्र उम्मीदवारों को भी साथ लेकर चुनावी मैदान में उतरा था, जिससे चुनावी रणनीति में जटिलता और अनिश्चितता पैदा हुई।
उदाहरण के तौर पर, अभिनेत्री स्वरा भास्कर के पति फहाद अहमद जो पहले सपा (समाजवादी पार्टी) से थे, ने सीट बंटवारे के दौरान सपा से कम सीटें मिलने के कारण एनसीपी (शरद पवार गुट) का रुख किया और अणुशक्ति नगर से चुनावी मैदान में उतरे। इसके अलावा, अन्य पार्टियों को भी अलग-अलग सीटें दी गईं, जिससे यह संदेश गया कि अगर महाविकास अघाड़ी जीतता है तो राज्य में सीएम पद और मंत्रिमंडल को लेकर गंभीर मतभेद और रार मच सकती हैं।
5. भाजपा ने स्थानीय को दिया महत्व
भााजपा की रणनीति में हमेशा से स्थानीय नेताओं को प्रमुखता दी गई है, और इस बार महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी यह रणनीति पूरी तरह से अपनाई गई। पार्टी ने स्थानीय मुद्दों और नेताओं को ध्यान में रखते हुए प्रचार किया, जिससे जनता से जुड़ी समस्याओं पर ज्यादा फोकस किया गया। इसका उदाहरण हरियाणा विधानसभा चुनाव भी है, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कम प्रचार किया और स्थानीय नेताओं पर ज्यादा भरोसा किया।
महाराष्ट्र में भी भाजपा ने उसी रणनीति का पालन किया। यहां पार्टी ने डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस को प्रमुख चेहरे के रूप में प्रचार में उतारा और उनकी रैलियों और सभाओं को प्राथमिकता दी। फडणवीस की छवि एक स्थिर और सक्षम नेता के रूप में है, जो राज्य के विकास के लिए काम कर चुके हैं। इसके अलावा, भाजपा ने स्थानीय मुद्दों और चुनौतियों को लेकर जनता से सीधे संवाद किया, जिससे लोगों को यह महसूस हुआ कि उनकी समस्याओं पर ध्यान दिया जा रहा हैं।
6. हिंदू-मुस्लिम वोटों को साधना
भााजपा नेतृत्व वाले महायुति गठबंधन ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सधी हुई रणनीति अपनाई, जिससे उन्होंने एक व्यापक वोट बैंक बनाने में सफलता पाई। 'बंटेंगे तो कटेंगे, एक हैं तो सेफ हैं' जैसे नारों के जरिए उन्होंने हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का प्रयास किया। यह संदेश दिया गया कि अगर हिंदू एकजुट रहते हैं, तो उनकी राजनीतिक ताकत बनी रहेगी, और अगर उनका वोट विभाजित होता है, तो इसका फायदा विपक्षी पार्टी को मिल सकता हैं।
वहीं, भाजपा और शिंदे सरकार ने यह भी सुनिश्चित किया कि वे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नहीं दिखें। इसके लिए उन्होंने एनसीपी (अजित पवार गुट) के मुस्लिम प्रत्याशियों को समर्थन दिया और इस प्रकार यह संदेश दिया कि वे केवल एक धर्म के पक्षधर नहीं हैं, बल्कि सभी समुदायों के हितों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
इसके अतिरिक्त, शिंदे सरकार ने चुनाव से ठीक पहले मदरसों के शिक्षकों की सैलरी बढ़ाकर यह सुनिश्चित किया कि मुस्लिम समुदाय से भी सकारात्मक प्रतिक्रिया मिले। इस कदम से महायुति को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों का समर्थन मिला, जो चुनाव में महत्वपूर्ण साबित हुआ।
7. भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का साथ
विपक्ष यह मानकर चल रहा था कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बीच रिश्ते पहले जैसे मजबूत नहीं रहे, लेकिन चुनावी रणनीति में भाजपा ने इस धारणा को गलत साबित किया। भाजपा ने आरएसएस से अपने रिश्तों को फिर से मजबूती से स्थापित किया, और संघ ने भी भाजपा का खुलकर समर्थन किया। संघ के कार्यकर्ताओं ने चुनाव प्रचार में अहम भूमिका निभाई और भाजपा के संदेश को घर-घर तक पहुंचाया।
संघ ने अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से जनता से यह अपील की कि वे एकजुट होकर महायुति गठबंधन को वोट दें। इसके अलावा, संघ ने लोगों को जागरूक करने का भी प्रयास किया, खासकर उन मुद्दों को लेकर जो भाजपा के लिए चुनावी मुद्दे बने थे। संघ ने लोकसभा सीट की अहमियत को समझाते हुए वोटिंग की अपील की और लोगों को भूमि जिहाद, लव जिहाद, धर्मांतरण, पत्थरबाजी और दंगों जैसी घटनाओं के बारे में भी सतर्क किया।
संघ के इस समर्थन ने भाजपा के प्रचार को और मजबूत किया, जिससे मतदाताओं में एक विशेष प्रकार का जागरूकता पैदा हुई, और इसके परिणामस्वरूप महायुति को चुनाव में व्यापक समर्थन मिला।