8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए लंबित विधेयकों पर 3 महीने में निर्णय लेना चाहिए। इस पर उपराष्ट्रपति धनखड़ ने नाराजगी जताते हुए इसे लोकतंत्र के खिलाफ बताया।
नई दिल्ली। भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी पर तीखी प्रतिक्रिया दी है, जिसमें कहा गया था कि राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए लंबित विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय ले लेना चाहिए। यह टिप्पणी 8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने दी थी। धनखड़ ने इस बयान को भारत के लोकतांत्रिक ढांचे के विरुद्ध बताया और कहा कि न्यायपालिका का ऐसा रवैया संविधान की मूल भावना पर चोट है।
‘Super Parliament’ जैसी व्यवस्था पर सवाल
उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमने कभी ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी, जहां जज न सिर्फ कानून बनाएंगे बल्कि कार्यपालिका की भूमिका निभाते हुए 'सुपर संसद' की तरह कार्य करेंगे। उन्होंने सवाल उठाया कि जब राष्ट्रपति को निर्देश देने जैसी स्थिति आने लगे, तो यह चिंता का विषय है। "हम कहां जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है?" उन्होंने trainees को संबोधित करते हुए कहा।
‘राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च है’
धनखड़ ने अपने बयान में यह भी कहा कि भारत का राष्ट्रपति पद सबसे ऊंचा संवैधानिक पद है, जिसे निर्देश नहीं दिया जा सकता। "राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, संरक्षण और पालन की शपथ लेते हैं, जबकि बाकी सभी — मंत्री, सांसद, न्यायाधीश — संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं।" उन्होंने यह भी जोड़ा कि सुप्रीम कोर्ट के पास संविधान की व्याख्या का अधिकार Article 145(3) के तहत है, लेकिन उससे आगे जाकर आदेश देना एक चिंताजनक संकेत है।
‘यह कोई साधारण बयान नहीं है’
धनखड़ ने स्पष्ट रूप से कहा कि यह कोई review या petition फाइल करने जैसा मुद्दा नहीं है, बल्कि यह भारत के संवैधानिक मूल्यों और संस्थाओं के बीच संतुलन से जुड़ा मसला है। उन्होंने इसे अपनी जिंदगी की सबसे गंभीर चिंताओं में से एक बताया और कहा कि यह वक्त judiciary की accountability पर भी सोचने का है।