एक छोटे से गाँव में संतोष जी का परिवार रहता था। संतोष जी एक सरकारी बैंक में मैनेजर थे, और उनकी पत्नी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। परिवार में चार बेटे थे, जिनके लिए संतोष जी ने हमेशा आधुनिक शिक्षा को प्राथमिकता दी। वे चाहते थे कि उनके सभी बेटे बड़े अफसर बनें। दूसरी ओर, उनकी पत्नी का सपना था कि उनका एक बेटा गुरुकुल में पढ़ाई करे और संस्कृत और धर्मशास्त्र का ज्ञाता बने। लेकिन संतोष जी ने हमेशा उनकी इस इच्छा को नजरअंदाज किया।
पत्नी की जिद और गुरुकुल का फैसला
संतोष जी ने बड़े तीन बेटों को आधुनिक शिक्षा दी। वे डॉक्टर, इंजीनियर और सरकारी अधिकारी बन गए। लेकिन चौथे बेटे के समय उनकी पत्नी ने अपनी बात पर जोर दिया। अंततः संतोष जी ने उनकी बात मान ली और चौथे बेटे को गुरुकुल भेज दिया। वह बेटा यज्ञ और प्रवचन करने वाला आचार्य बन गया।
संतोष जी हमेशा यह सोचते थे कि चौथे बेटे को गुरुकुल भेजना एक गलती थी। वे मानते थे कि आधुनिक शिक्षा ही सही रास्ता है और गुरुकुल में पढ़ाई से भविष्य सुरक्षित नहीं होता।
माँ की अनोखी परीक्षा
समय बीतता गया, और सभी बेटे अपने-अपने जीवन में व्यस्त हो गए। लेकिन एक दिन, संतोष जी की पत्नी ने बेटों की नैतिकता और संस्कार परखने का निश्चय किया। उन्होंने एक नाटक रचा। उन्होंने अपने बाल बिखेरे, साड़ी फाड़ी और आंगन में बैठकर रोने लगीं। वे जोर-जोर से यह कहने लगीं कि संतोष जी ने उन्हें मारा हैं।
पहला बेटा
पहला बेटा आया और माँ की हालत देखकर गुस्से में बोला, "बुड्ढा सठिया गया है। इसे सबक सिखाना पड़ेगा।" इतना कहकर वह खाना खाकर अपने कमरे में चला गया।
दूसरा बेटा
दूसरा बेटा आया और माँ की बात को नजरअंदाज करते हुए बोला, "आप दोनों की लड़ाई में मैं नहीं पड़ता।" और सोने चला गया।
तीसरा बेटा
तीसरा बेटा भी माँ की हालत देखकर नाराज हुआ, लेकिन कुछ देर बाद वह भी कमरे में चला गया।
चौथा बेटा
चौथा बेटा, जो गुरुकुल में पढ़ा था, घर आया और माँ की हालत देखकर तुरंत समझ गया कि यह एक नाटक है। उसने माँ के पास बैठकर कहा, "माँ, पिता जी आपसे कितना प्यार करते हैं। वे आपके बिना अधूरे हैं। अगर उन्होंने कुछ कहा है तो उसमें जरूर कोई कारण होगा। आप शांत हो जाइए। मैं सब संभाल लूंगा।"
सच्चे हीरे की पहचान
माँ की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने चौथे बेटे को गले लगाते हुए कहा, "तू ही मेरा सच्चा बेटा है।" संतोष जी, जो अंदर बैठे सब कुछ सुन रहे थे, यह देखकर भावुक हो गए। उन्होंने चौथे बेटे को गले लगाते हुए कहा, "काश मैंने अपने चारों बेटों को गुरुकुल भेजा होता। असली शिक्षा वही है जो इंसान को नैतिक और संस्कारी बनाती है।"
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि
आधुनिक शिक्षा और बड़े पद ही सब कुछ नहीं हैं। संस्कार और नैतिक मूल्य भी उतने ही जरूरी हैं। केवल डिग्री और सफलता से इंसान महान नहीं बनता। वह महान तब बनता है जब वह अपने माता-पिता और समाज के प्रति कर्तव्यों को समझता है।
संस्कार और नैतिकता ही असली हीरा बनाते हैं। संतोष जी के चौथे बेटे ने यह साबित कर दिया कि गुरुकुल की शिक्षा सिर्फ ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन की सच्ची समझ भी देती हैं।