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धार्मिक वैभव का प्रतीक: लिंगराज मंदिर की अद्भुत गाथा

धार्मिक वैभव का प्रतीक: लिंगराज मंदिर की अद्भुत गाथा

लिंगराज मंदिर, भुवनेश्वर का हृदय-स्‍थान, पत्‍थरों में तराशी एक ऐसी दिव्‍य कथा है जो इतिहास, आस्था और स्थापत्य को एक सूत्र में बाँध कर रखती है। लगभग एक हज़ार वर्षों से, यह मंदिर केवल पूजा-स्थल ही नहीं, बल्कि कलिंग सभ्यता की जीवित स्मृति-वृक्ष की तरह श्रद्धालुओं को छाया देता आया है। आइए, इस पवित्र धरोहर की विस्तृत यात्रा पर चलें—उस धरती से, जिसे ब्रह्म पुराण ने “एकाम्र क्षेत्र” कहा है, उस शिखर तक, जो 180 फ़ुट की ऊँचाई से श्रद्धा की लौ को प्रज्‍ज्‍वलित रखता है।

इतिहास की परतें: सोमवंशी स्वप्न से मूर्त वास्तविकता तक

11वीं शताब्दी के सोमवंशी नरेश ययाति केशरी को जब अपनी राजधानी जाजपुर से भुवनेश्वर लानी थी, तो उन्होंने केवल राजकीय निर्णय नहीं लिया—उन्होंने भूमि का आध्यात्मिक चरित्र भी गढ़ा। ययाति ने जिस गर्भगृह की नींव रखी, वही कालान्तर में 12वीं शताब्दी के विस्तार के साथ मौजूदा भव्य रूप को प्राप्त हुआ। दिलचस्प बात यह है कि पुरातात्त्विक अनुसंधान आज भी गर्भगृह की कुछ दीवारों को 6वीं शताब्दी का आँकता है, मानो पुराने कालखंड नई ईंटों का मार्गदर्शन कर रहे हों।

पौराणिक आलोक: लिट्टी-वसा का अंत और बिन्दुसागर की कथा

लोककथाएँ बताती हैं कि पार्वती माता ने यहीं लिट्टी और वसा नामक असुरों का संहार किया। विकट युद्ध के उपरान्त, जब देवी को प्यास लगी, शिव शंकर ने त्रिशूल का प्रहार कर पृथ्वी को चीर जलकूप रचा और समस्त पवित्र नदियों को आमंत्रित किया। यही कूप आगे चलकर 'बिन्दुसागर सरोवर' कहलाया। आज भी भुवनेश्वर आने वाला हर तीर्थयात्री सर्वप्रथम इसी सरोवर में डुबकी लगाकर आस्था को नहलाता है, फिर लिंगराज के दर्शन करता है। यह व्यवस्था केवल अनुष्ठान नहीं, बल्कि स्मृति है उस दिव्य-लीला की, जिसने इस भू-भाग को तपोभूमि का दर्जा दिया।

पत्थरों में बसता संगीत: अद्भुत शिल्पकला और स्थापत्य

लिंगराज की मुख्य विमान (टॉवर) 180 फ़ुट ऊँची, चरणों-चरणों पर घटते विशाल क्रम से ऊपर उठती है। नीचे का आधार सीधा-समकोणीय है; मगर ऊपर जाकर वक्रता ऐसा झुकाव लेती है मानो पूरी संरचना शिखर-संगीत का आरोह-अवरोह रच रही हो।

  • नक़्क़ाशी की सूक्ष्मता: प्रत्येक शिला पर देव-युग्म, अप्सराएँ, पुष्पलताएँ, मिथुन दृश्‍य और पशु-पक्षी इतने जीवंत प्रतीत होते हैं कि लगता है अभी कोई मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा कर देगा।
  • गज़शोढूम रूपक: हाथी पर सवार शेर की प्रस्तर-मूर्तियाँ गोंड राजवंश की विजय-चिह्न परंपरा याद दिलाती हैं।
  • हरिहर सिद्धांत: गर्भगृह का शिवलिंग ‘हरिहर-रूप’ मानकर पूजित है; यह विष्णु-शिव एकता का कलिंग-संस्कृति-जन्य दार्शनिक संकेत है।

वास्तु-विशेषज्ञ इस मंदिर को उत्तर-भारतीय नागर शैली और द्रविड़ तत्वों के संगम का प्रारम्भिक आदर्श मानते हैं, जो बाद की शताब्दियों में खजुराहो और कोणार्क जैसी कृतियों को प्रेरणा देगा।

पूजा-विधान: अनुशासन में निहित आध्यात्मिक नाद

यहाँ की दैनिक अर्चना पँचमकालिक पद्धति पर आधारित है, जिसमें चौबीसों घंटे अलग-अलग सेवायत (पुरोहित वर्ग) संपूर्ण विधान संभालते हैं। एक साधारण भक्त के लिए यात्रा-क्रम इस प्रकार है—

  1. बिन्दुसागर स्नान: शारीरिक-मानसिक शुद्धि।
  2. अनंत वासुदेव के दर्शन: विष्णु-स्वरूप का आशीर्वाद।
  3. श्री गणेश व गोपालिनी देवी की वंदना।
  4. नंदी-महादेव को प्रणाम और फिर मुख्य गर्भगृह में प्रवेश।
  5. माँ पार्वती के मंदिर में समापन भोग अर्पण।

यह क्रम महज परंपरा नहीं; भक्त को बताता है कि शिव दर्शन की राह समग्र सनातन-तत्वों के संतुलन से होकर जाती है—साकार-निर्गुण, पुरुष-प्रकृति और ज्ञान-भक्ति सब एकत्र होकर मन को एकाग्र करते हैं।

उत्सवों की झंकार: रथयात्रा से शिवरात्रि तक

  • चन्द्रशेखर रथयात्रा (अप्रैल): भगवान लिंगराज को विशाल रथ पर बिराजमान कर बिन्दुसागर के पार स्थित चन्द्रशेखर मंदिर ले जाया जाता है। यह दृष्य श्रद्धा और सांस्कृतिक उत्साह का संगम होता है, जब पूरा शहर नाद-ब्रह्म में डूब जाता है।
  • महाशिवरात्रि: रात्रि भर शिव महिम्न स्त्रोत, तंत्र-मंत्र जप और नाद-योग की झंकार मन्दिर परिसर को आलोक-महासागर में बदल देती है।
  • संक्रांति पर्व: प्रत्येक मासिक संक्रांति पर गाय-दुग्ध, बेलपत्र और कस्तूरी से विशेष अभिषेक किया जाता है।

एकाम्र वन: मंदिर-समूहों का गुंफित इंद्रधनुष

भुवनेश्वर को ‘मन्दिरों का नगर’ यूँ ही नहीं कहा गया। लिंगराज के इर्द-गिर्द ही मुक्तेश्वर, परशुरामेश्वर, भास्करेश्वर, सिद्धेश्वर, केदारेश्वर और बैतालमन्दिर जैसी दर्जनों प्राचीन रचनाएँ हैं। ये सभी कलिंग-वास्‍तु के विभिन्न काल-खंडों के जीवित शिलालेख हैं। विशेष उल्लेखनीय है:

  • मुक्तेश्वर मंदिर: जिसे 'कलिंग वास्तुकला का रत्न' कहा जाता है। यहाँ की तोरण-द्वार का श्रृंगार बाद के ओडिशाई मंदिरों की मानक शैली बन गया।
  • बैतालमन्दिर: पारंपरिक शिव स्थानों में बिरला तंत्र-केन्द्र, जहाँ चामुंडा-महिषमर्दिनी की शक्तिपूजा होती है।

लिंगराज के बिना इन मंदिरों की चर्चा अपूर्ण और इन मंदिरों के बिना लिंगराज की महिमा अधूरी है; सभी मिलकर भुवनेश्वर को एक कण्टीन्यूअस 'आस्था-परिसर' में बदल देते हैं।

सांस्कृतिक-सुरक्षा और संरक्षण की चुनौतियाँ

वर्षों से पर्यटक-आवागमन, शहरी विकास और पर्यावरणीय दबाव इस धरोहर के लिए चुनौतियाँ बने हुए हैं, किन्तु भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) और राज्य सरकार की संयुक्त पहल ने कुछ ठोस कदम उठाए हैं—

  • रासायनिक संरक्षण: शिलाओं पर उगती काई और प्रदूषण जनित रासायनिक परतों को हटाने हेतु विशेष शुद्धिकरण।
  • परिसर-अधिग्रहण: भीड़भाड़ कम करने के लिए बाहरी मार्ग का चौड़ीकरण और अवैध निर्माण हटाना।
  • डिजिटल अभिलेखन: 3D स्कैनिंग के द्वारा शिल्प-विस्तार का क्लाउड डेटाबेस तैयार, ताकि किसी क्षति की स्थिति में पुनरुत्पादन संभव हो सके।

इन प्रयत्नों का लक्ष्य है कि भावी पीढ़ियाँ भी उसी अचम्भे के साथ इस चमत्कारिक रचना का दर्शन कर सकें।

तीर्थ और पर्यटन: आध्यात्मिकता से अर्थव्यवस्था तक

भुवनेश्वर की पहचान, एक आधुनिक स्मार्ट-सिटी होने के बावजूद, लिंगराज मंदिर के बिना अधूरी है। अनुमानतः हर वर्ष दस लाख से अधिक श्रद्‌धालु-पर्यटक यहाँ आते हैं, जिससे स्थानीय हस्तशिल्प, ओडिया खान-पान (खाजा, रसभोग, चेनापोड़ा) और पारंपरिक वस्त्र उद्योग को प्रोत्साहन मिलता है। राज्य सरकार ने मंदिर-परिसर के निकट ओडिशा हाट की स्थापना कर कारीगरों को सीधा बाज़ार मुहैया कराया है। इस वाणिज्यिक समागम में भी श्रद्धा का रंग फीका नहीं पड़ता, बल्कि 'धर्म और अर्थ' की सनातन सहयात्रा को पुष्ट करता है।

आध्यात्मिक-अनुभव: ध्यान, नाद और ‘सन्नाटा-संगीत’

यदि आप प्रहर रात्रि में मंदिर के भीतर ध्यान मुद्रा में बैठ जाएँ, तो सबसे पहले कानों में दूर बजता घंटा-निनाद आता है। धीरे-धीरे वह ध्वनि भीतर उतर कर हृदय-नाड़ी का स्पंदन बन जाती है। इस क्षण आप समझ पाते हैं कि “लिंग-राज” का अर्थ केवल दृश्य शिवलिंग नहीं, बल्कि वह सूक्ष्म ऊर्जा है जो त्रिकाल और त्रिभुवन को जोड़ती है। यही कारण है कि भटकते मन को यहाँ स्वाभाविक ठहराव मिलता है; जिसे आधुनिक योग-विज्ञान ‘ध्वनि-अनुरणन योग्य क्षेत्र’ कह सकता है।

लिंगराज मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत का गौरवशाली प्रतीक है। यह मंदिर भक्ति, कला और इतिहास का संगम है, जहाँ श्रद्धालु आत्मिक शांति प्राप्त करते हैं। इसकी दिव्यता और आकर्षण आने वाली पीढ़ियों को भी भारतीय संस्कृति से जोड़ते रहेंगे। यह शिवभक्ति का जीवंत प्रतीक है।

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