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जे.के. आचार्य की याचिका खारिज, हाई कोर्ट ने अनिवार्य सेवानिवृत्ति को ठहराया सही

जे.के. आचार्य की याचिका खारिज, हाई कोर्ट ने अनिवार्य सेवानिवृत्ति को ठहराया सही

गुजरात हाई कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीश पर एक भी प्रतिकूल टिप्पणी उसकी अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए पर्याप्त है। जे.के. आचार्य की याचिका खारिज करते हुए अदालत ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका की गरिमा और जनता का विश्वास सर्वोपरि है।

New Delhi: गुजरात हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ एक भी प्रतिकूल टिप्पणी उसे अनिवार्य सेवानिवृत्ति देने के लिए पर्याप्त है। अदालत ने कहा कि न्यायाधीश एक ऐसा पद है, जिस पर जनता का विश्वास टिका होता है। ऐसे में उसके चरित्र और ईमानदारी पर कोई सवाल उठना अस्वीकार्य है। अदालत ने यह भी कहा कि न्यायपालिका की गरिमा बनाए रखने के लिए न्यायाधीशों का उच्च नैतिक मूल्यों और पारदर्शिता पर खरा उतरना जरूरी है।

जे.के. आचार्य की याचिका खारिज

यह टिप्पणी उस समय आई जब खंडपीठ ने जे.के. आचार्य की याचिका खारिज कर दी। आचार्य उन 18 सत्र न्यायाधीशों में शामिल थे, जिन्हें 2016 में अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त कर दिया गया था। उन्होंने हाई कोर्ट के पूर्ण कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। लेकिन जस्टिस ए.एस. सुपेहिया और जस्टिस एल.एस. पिरजादा की खंडपीठ ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया और साफ किया कि सेवानिवृत्ति का निर्णय सही था।

ईमानदारी और नैतिक मूल्यों पर जोर

अदालत ने कहा कि न्यायाधीश को हमेशा पूर्ण ईमानदार और उच्च नैतिक मूल्यों वाला होना चाहिए। अगर उसकी ईमानदारी पर जरा भी संदेह उठता है तो यह उसकी भूमिका और न्यायपालिका दोनों की साख को प्रभावित करता है। अदालत ने यह भी कहा कि न्यायाधीश का पद एक ‘पब्लिक ट्रस्ट’ है और इसमें पारदर्शिता और निष्ठा से कोई समझौता नहीं हो सकता।

अनिवार्य सेवानिवृत्ति को लेकर अदालत का रुख

हाई कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अनिवार्य सेवानिवृत्ति कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं है। यह कदम जनहित में उठाया जाता है ताकि न्यायपालिका की छवि और जनता का भरोसा कायम रहे। अदालत ने कहा कि इसके लिए न्यायाधीश को शो-कॉज नोटिस जारी करना भी जरूरी नहीं है। यानी यदि रिकॉर्ड में प्रतिकूल टिप्पणियां मौजूद हैं, तो उसके आधार पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति का फैसला लिया जा सकता है।

न्यायपालिका की गरिमा बनाए रखने पर बल

गुजरात हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि न्यायपालिका की गरिमा सर्वोपरि है और इसे किसी भी कीमत पर कमज़ोर नहीं होने दिया जा सकता। न्यायाधीशों को न केवल अपने फैसलों से बल्कि अपने आचरण से भी लोगों का विश्वास जीतना होता है। यही कारण है कि उनके खिलाफ एक भी प्रतिकूल टिप्पणी गंभीर मानी जाएगी।

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