रत्नसिंह मेवाड़ के अंतिम रावल थे, जिन्होंने 1303 में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण में चित्तौड़ की रक्षा की। उनकी मृत्यु, आत्मसमर्पण और रानी पद्मिनी की कथा इतिहास और किंवदंती के बीच विवाद का विषय बनी हुई है।
Ratnasimha: भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास वीरता, बलिदान और किंवदंतियों से भरपूर है। राजस्थान की वीर भूमि मेवाड़, जिसमें चित्तौड़गढ़ एक प्रमुख ऐतिहासिक केंद्र रहा है, ने अनेक योद्धाओं और शासकों को जन्म दिया। इन्हीं में से एक थे रत्नसिंह — गुहिल वंश की रावल शाखा के अंतिम शासक। उनके शासनकाल और जीवन से जुड़े अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक वृत्तांत हैं, जिनमें से कुछ वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं, तो कुछ लोककथाओं और साहित्यिक कल्पनाओं की उपज हैं।
गुहिल वंश और रत्नसिंह का उदय
रत्नसिंह का शासनकाल 1302 से 1303 ईस्वी के बीच रहा। वे गुहिल वंश की रावल शाखा से थे, जो मेवाड़ पर शासन करता था और जिसका प्रमुख केंद्र था चित्तौड़ का दुर्ग (जिसे उस समय चित्रकूट के नाम से जाना जाता था)। उनके पिता समरसिंह की मृत्यु के बाद उन्होंने मेवाड़ की राजगद्दी संभाली। 1302 ई. के दरीबा मंदिर शिलालेख में रत्नसिंह का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, जिसमें बताया गया है कि उनके शासनकाल में मंदिर को 16 ड्रामों का दान दिया गया। इस शिलालेख में उन्हें 'महाराजकुल' कहा गया है, जो संकेत करता है कि उस समय शासक की उपाधि 'राउल' हुआ करती थी।
चित्तौड़ पर संकट: अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण
13वीं सदी के अंतिम वर्षों में दिल्ली सल्तनत का विस्तार अपने चरम पर था। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने उत्तरी भारत पर अपना अधिकार जमाने के बाद चित्तौड़ की ओर कूच किया। 1303 में उसने चित्तौड़गढ़ का घेराव किया। महीनों तक चले इस संघर्ष में दो बार उसकी सेना ने अलग-अलग दिशाओं से किले पर धावा बोला, परन्तु वे सफल नहीं हुए। बाद में, मंगोल तकनीक से प्रेरित 'मंजनीक' (एक प्रकार की पत्थर फेंकने वाली यंत्र) का प्रयोग किया गया। 26 अगस्त 1303 को खिलजी की सेना किले में घुसने में सफल रही और इतिहास का एक काला अध्याय रचा गया।
हार के बाद रत्नसिंह का भाग्य: आत्मसमर्पण या बलिदान?
इस ऐतिहासिक युद्ध के पश्चात रत्नसिंह का क्या हुआ, इस पर इतिहासकारों में मतभेद हैं। अमीर खुसरो, जो अलाउद्दीन के दरबारी कवि थे और स्वयं युद्ध के समय उपस्थित थे, लिखते हैं कि चित्तौड़ के शासक 'राय' ने सुल्तान के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके बाद खिलजी ने 30,000 हिंदुओं का नरसंहार किया, किंतु रत्नसिंह और उसके परिवार को क्षमा कर दिया गया। दूसरी ओर, जैन ग्रंथों और कुंभलगढ़ शिलालेख के अनुसार, यह स्पष्ट नहीं है कि रत्नसिंह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए या युद्धभूमि से हट गए। जैन लेखक कक्का सूरी लिखते हैं कि खिलजी ने चित्तौड़ के शासक को बंदी बनाकर एक नगर से दूसरे नगर बंदर की तरह घुमाया।
इतिहासकारों की दृष्टि में रत्नसिंह की भूमिका
इतिहासकारों का इस विषय पर मतभेद स्पष्ट है:
- गौरीशंकर ओझा और कालिका रंजन कानूनगो जैसे इतिहासकार मानते हैं कि रत्नसिंह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
- आर. सी. मजूमदार और अक्षय कीर्ति व्यास का मत है कि रत्नसिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया था।
- दशरथ शर्मा मानते हैं कि वे जीवित बचे और बंदी बनाकर दिल्ली ले जाए गए।
- यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कुंभलगढ़ शिलालेख में रत्नसिंह के 'प्रस्थान' का उल्लेख है, जो मृत्यु या कायरतापूर्ण भागने दोनों अर्थों में लिया जा सकता है।
पद्मिनी कथा: इतिहास या कल्पना?
रत्नसिंह के जीवन से जुड़ी सबसे प्रसिद्ध किंवदंती रानी पद्मिनी की है, जिसे मलिक मुहम्मद जायसी की 16वीं शताब्दी की महाकाव्य 'पद्मावत' में वर्णित किया गया है। इसके अनुसार:
- रतन सेन (रत्नसिंह) ने सिंहल की राजकुमारी पद्मिनी से विवाह किया।
- अलाउद्दीन खिलजी ने उसकी सुंदरता की कहानी सुनकर चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
- रतन सेन को दिल्ली ले जाया गया और बाद में पद्मिनी के योद्धाओं ने उन्हें छुड़ा लिया।
- कुंभलनेर के राजा देवपाल ने पद्मिनी से विवाह प्रस्ताव भेजा, जिससे आहत होकर रतन सेन ने युद्ध किया और दोनों राजाओं की मृत्यु हो गई।
- अंततः खिलजी ने चित्तौड़ पर विजय प्राप्त की और पद्मिनी ने अन्य महिलाओं के साथ जौहर किया।
इस कथा की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठते रहे हैं। जायसी ने इसे लिखने के 200 वर्ष बाद घटनाओं को साहित्यिक अलंकरण के साथ प्रस्तुत किया। पद्मावत एक सूफी काव्य है, जिसमें अनेक प्रतीकात्मक और काल्पनिक तत्व हैं।
इतिहास और किंवदंती का अंतर
कालिका रंजन कानूनगो ने अपनी पुस्तक 'पद्मिनी कथा का आलोचनात्मक विश्लेषण' में यह तर्क दिया कि पद्मावत में वर्णित रतन सेन, कुंभलगढ़ के रत्नसिंह नहीं बल्कि अलग व्यक्ति थे। उन्होंने चार अलग-अलग रत्नसिंहों की पहचान की, जिनका वर्णन विभिन्न ग्रंथों में हुआ है। हालांकि इतिहासकार राम वल्लभ सोमानी और जोगेंद्र प्रसाद सिंह ने इस विचार का विरोध किया और प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि जायसी का रतन सेन और गुहिल वंश का रत्नसिंह एक ही व्यक्ति थे।
पद्मिनी: एक मिथक या नायिका?
पद्मिनी की ऐतिहासिकता पर भी इतिहासकारों में मतभेद हैं। अबुल फजल जैसे मुगल इतिहासकारों ने इसे 'प्राचीन इतिहास' का हिस्सा कहा, जिससे प्रतीत होता है कि यह लोकगाथाओं और मिथकों से उपजा चरित्र है। इतिहासकार एस. रॉय का मानना है कि पद्मिनी कथा को पूरी तरह से झूठ कहना उचित नहीं, लेकिन इसे पूर्ण ऐतिहासिक तथ्य मानना भी गलत होगा। यह संभव है कि कोई ऐतिहासिक आधार हो, जिसे समय और साहित्य ने अलंकृत कर दिया।
लोकप्रिय संस्कृति में रत्नसिंह और पद्मिनी
रत्नसिंह और पद्मिनी की कहानी ने भारतीय संस्कृति में एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। उनके जीवन पर आधारित कई फिल्में, नाटक और टीवी शोज़ बने हैं:
- 'चित्तूर रानी पद्मिनी' (1963) में शिवाजी गणेशन ने रत्नसिंह का किरदार निभाया।
- 'भारत एक खोज' (1988) में राजेंद्र गुप्ता ने उनकी भूमिका निभाई।
- 'चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का जौहर' टीवी सीरीज़ में रोहित बक्शी रत्नसिंह बने।
- 'पद्मावत' (2018) में शाहिद कपूर ने रतन सिंह की भूमिका निभाई।
इन प्रस्तुतियों ने ऐतिहासिक सत्य और साहित्यिक कल्पना को एक साथ पिरोकर जनमानस में उनकी छवि को अमर कर दिया।
रत्नसिंह का जीवन और मृत्यु एक ऐतिहासिक गूढ़ता से भरा विषय है। उनकी वीरता, संघर्ष और विवादों ने उन्हें एक ऐसा शासक बना दिया, जिन पर इतिहासकारों, साहित्यकारों और फिल्मकारों ने समान रूप से ध्यान दिया। पद्मिनी और जौहर की कथा ने उन्हें कालजयी बना दिया, किंतु हमें यह समझना चाहिए कि इतिहास और किंवदंती में अंतर करना आवश्यक है।