प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 का उद्देश्य भारत में सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखना और ऐतिहासिक धार्मिक विवादों को रोकना है। इस अधिनियम के तहत, यह प्रावधान किया गया है कि 15 अगस्त 1947 को भारत में मौजूद किसी भी उपासना स्थल का जो धार्मिक स्वरूप था, वह वैसा ही बना रहेगा और उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जाएगा।
नई दिल्ली: उपासना स्थल अधिनियम, 1991 (प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट) को चुनौती देने वाली जनहित याचिकाओं पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी। इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में धार्मिक स्थलों के सांप्रदायिक स्वरूप को संरक्षित करना और ऐतिहासिक विवादों को रोकना है। याचिकाओं में इस कानून को यह कहते हुए चुनौती दी गई है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 26 (धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन का अधिकार) का उल्लंघन करता हैं।
सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष पीठ (स्पेशल बेंच) का गठन किया है, जिसमें चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार, और जस्टिस केवी विश्वनाथ शामिल हैं। यह मामला संवेदनशील है क्योंकि यह भारत के सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक स्थलों के कानूनी और ऐतिहासिक स्वरूप से जुड़ा हुआ है। इस सुनवाई से कानून की वैधता पर महत्वपूर्ण निर्णय की संभावना हैं।
क्या है 'प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट'?
उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत में 15 अगस्त, 1947 को मौजूद उपासना स्थलों का धार्मिक स्वरूप वैसा ही बना रहे, जैसा वह उस दिन था। इस कानून के तहत, किसी भी धार्मिक स्थल के स्वरूप में बदलाव या उस पर पुनः दावा करने के लिए वाद दायर करने पर प्रतिबंध है। इसका मकसद देश में सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखना और धार्मिक विवादों को रोकना हैं।
हालांकि, इस अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि यह कानून नागरिकों के समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14), धर्म की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25), और धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन के अधिकार (अनुच्छेद 26) का उल्लंघन करता है। इन याचिकाओं में से एक प्रमुख याचिका अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है, जिसमें उन्होंने इस अधिनियम की धाराओं 2, 3 और 4 को रद्द करने की मांग की है। उनका कहना है कि यह कानून ऐतिहासिक अन्यायों को ठीक करने से रोकता है और धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों के खिलाफ हैं।
याचिकाओं में की गई ये मांग
उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को लेकर दायर याचिकाओं में विभिन्न पक्षों के बीच गंभीर बहस हो रही है। याचिकाकर्ताओं का एक प्रमुख तर्क यह है कि इस अधिनियम की धारा 3 और 4 किसी व्यक्ति या धार्मिक समूह को न्यायालय में अपना दावा प्रस्तुत करने और न्यायिक समाधान प्राप्त करने के अधिकार से वंचित करती हैं। उनका कहना है कि यह प्रावधान नागरिकों के मौलिक अधिकारों और ऐतिहासिक अन्यायों को ठीक करने की प्रक्रिया को बाधित करता हैं।
दूसरी ओर, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और महाराष्ट्र के विधायक जितेंद्र सतीश अव्हाड सहित कुछ अन्य पक्ष इस कानून का समर्थन करते हुए दलील देते हैं कि यह भारत की सार्वजनिक व्यवस्था, बंधुत्व, और धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। उनका मानना है कि यह कानून धार्मिक स्थलों को विवादों से बचाता है और सांप्रदायिक तनाव को रोकने में सहायक हैं।
इस मामले की सुनवाई ऐसे समय हो रही है जब देश में कई विवादित उपासना स्थलों, जैसे वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद, और संभल में शाही जामा मस्जिद, से जुड़े मुकदमे विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। इन मुकदमों में दावा किया गया है कि ये स्थलों का निर्माण प्राचीन मंदिरों को तोड़कर किया गया था, और इन स्थानों पर हिंदुओं को पूजा करने का अधिकार दिया जाए।
याचिकाओं में मुस्लिम पक्ष ने कहा
उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को लेकर दायर याचिकाओं में मुस्लिम पक्ष ने प्रमुखता से तर्क दिया है कि यह कानून ऐसे मुकदमों को स्वीकार करने की अनुमति नहीं देता, जिनमें धार्मिक स्थलों के स्वरूप को बदलने या उन पर नए दावे करने की मांग की गई हो। इस संदर्भ में, वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद से जुड़े मामलों में मुस्लिम पक्ष ने कानून का हवाला देते हुए मुकदमे खारिज करने की मांग की हैं।
दूसरी ओर, इस कानून के प्रावधानों के खिलाफ छह याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं, जिनमें पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिकाएं प्रमुख हैं। सुब्रमण्यम स्वामी ने तर्क दिया है कि कानून की कुछ धाराओं की व्याख्या दोबारा की जानी चाहिए, ताकि हिंदुओं को वाराणसी और मथुरा जैसे विवादित स्थलों पर दावा करने का अधिकार मिल सके।