कक्षा की चमकती हुई रोशनी के नीचे, ब्लैकबोर्ड के पास बैठने वाले छात्रों को हमेशा ‘मेहनती’ और ‘उत्कृष्ट’ माना गया है। लेकिन क्लासरूम की भीड़ में, पीछे की पंक्ति में बैठे हुए छात्रों की कहानियाँ अक्सर दब जाती हैं। इन्हीं कहानियों में से एक कहानी है आरव की—एक बैक बेंचर छात्र, जिसकी ज़िन्दगी ने यह साबित कर दिया कि जगह नहीं, सोच और दृष्टिकोण इंसान की मंज़िल तय करते हैं।
पीछे की बेंच पर बैठने की वजह
आरव जब छठी कक्षा में था, तब तक वह हमेशा आगे की सीटों पर बैठता था। लेकिन धीरे-धीरे पढ़ाई का बोझ, टीचर्स की उम्मीदें और घर की अपेक्षाएँ उसे दबाने लगीं। सवाल का जवाब तुरंत न दे पाने पर हँसी उड़ाई जाती। गलत लिख देने पर डाँट पड़ती। ऐसे में वह धीरे-धीरे क्लास के पीछे जाकर बैठने लगा।
पीछे बैठना उसके लिए सुरक्षा कवच बन गया। वहाँ न टीचर की नज़र सीधे उस पर जाती, न दोस्तों की हँसी का डर रहता। पीछे की पंक्ति में बैठकर वह चुपचाप अपने ही खयालों में डूब जाता। किताबें उसके लिए पन्नों का बोझ थीं, लेकिन कॉपी के आख़िरी पन्ने उसके लिए कैनवास थे—जहाँ वह अपनी कल्पनाओं को चित्रों और शब्दों में उतारता।
बैक बेंचर का नज़रिया
आम धारणा यह है कि पीछे बैठने वाले छात्र आलसी, अनुशासनहीन और पढ़ाई में कमजोर होते हैं। लेकिन आरव के लिए यह जगह एक खिड़की थी, जिससे वह दुनिया को अलग नज़र से देख सकता था।
वह अक्सर खिड़की से बाहर झाँकते हुए पेड़ों, चिड़ियों और आसमान को देखता और उनकी कहानियाँ गढ़ता। शिक्षक बोर्ड पर समीकरण हल कर रहे होते, और आरव अपनी कॉपी में कोई कविता लिख रहा होता। उसके दोस्तों ने कई बार कहा—
'यार, तू पीछे क्यों बैठता है? यहाँ तो कुछ सुनाई भी नहीं देता।'
आरव हँसकर जवाब देता—
'जो चीज़ें सबको दिखती हैं, वो मुझे नहीं दिखतीं। मैं वो देखता हूँ, जो किसी ने अब तक लिखा ही नहीं।'
पीछे बैठने के कारण आरव को ताने मिले
पीछे बैठने का एक बड़ा परिणाम यह था कि टीचर और सहपाठी दोनों ही उसे कमज़ोर छात्र मानने लगे। क्लास टेस्ट में नंबर अच्छे न आने पर उसे ‘निकम्मा’ कहा जाता। कभी-कभी उसके ही दोस्त उसका मज़ाक उड़ाते कि वह बस पीछे बैठकर समय बर्बाद करता है।
घर में भी यह चर्चा होती कि—
'आरव पढ़ाई में ध्यान नहीं देता। हमेशा पीछे बैठता है। आगे बैठेगा तो शायद कुछ सीखेगा।'
लेकिन किसी ने यह नहीं समझा कि वह सीख रहा था—बस अलग तरीके से। किताबों के पन्नों से नहीं, बल्कि जीवन और अनुभवों से।
आरव की छुपी हुई प्रतिभा सामने आई
नौवीं कक्षा में एक बार स्कूल में क्रिएटिव राइटिंग प्रतियोगिता हुई। सब छात्रों से कहा गया कि वे एक छोटी कहानी लिखें। आरव ने उस दिन पहली बार अपनी लिखी हुई कहानी जमा की। कहानी थी—एक अकेले पेड़ की, जो पूरे जंगल के जानवरों को छाँव देता था, लेकिन खुद हमेशा धूप में जलता रहता था।
जब परिणाम आए, तो सब हैरान रह गए। आरव की कहानी ने पहला स्थान हासिल किया। जो छात्र हमेशा पीछे बैठता था, वही अब स्कूल के मंच पर खड़ा होकर तालियों की गड़गड़ाहट सुन रहा था।
उस दिन पहली बार उसने महसूस किया कि उसकी बैक बेंच ने उसे अलग सोचने और कल्पनाशील बनने का अवसर दिया था।
बैक बेंचर का असली फायदा
पीछे बैठने का मतलब सिर्फ क्लास से बचना नहीं होता। असल में, यह छात्रों को अपनी पहचान खोजने का मौक़ा भी देता है। आरव की तरह कई बैक बेंचर्स में वह क्षमता होती है, जो किताबों से नहीं, बल्कि अवलोकन और कल्पना से निखरती है।
- आगे बैठे छात्र जहाँ शिक्षक के सवालों का तुरंत जवाब देने में निपुण होते हैं, वहीं पीछे बैठे छात्र अक्सर गहरी सोच में मशगूल रहते हैं।
- बैक बेंच उन्हें आज़ादी देता है—किसी की सीधी नज़र के बिना खुद के विचारों में खो जाने की।
- यह जगह उन्हें सृजनशीलता और अन्वेषण का अवसर देती है।
आरव की मेहनत और लेखन की यात्रा
दसवीं बोर्ड परीक्षा तक आते-आते भी आरव औसत अंक ही ला पाया। लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। उसने तय किया कि वह अपनी कहानियों को ही अपनी पहचान बनाएगा। कॉलेज में उसने पत्रकारिता का विषय चुना।
वहाँ भी वह अक्सर पीछे बैठता, लेकिन अब यह उसकी आदत से ज़्यादा उसकी चॉइस थी। वह अपने नोटबुक में लोगों की बातें, उनके हावभाव, और रोज़मर्रा की छोटी घटनाएँ लिखता। धीरे-धीरे उसने कॉलेज मैगज़ीन में लिखना शुरू किया। उसकी रचनाएँ पाठकों को इतनी पसंद आने लगीं कि जल्द ही वह पूरे कॉलेज का जाना-पहचाना नाम बन गया।
बैक बेंचर्स पर समाज की सोच को चुनौती
यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न यह है—क्या सच में बैक बेंचर होना किसी की कमजोरी है? या यह सिर्फ समाज की बनाई हुई धारणा है?
आरव की कहानी इस बात का प्रमाण है कि हर छात्र की सीखने की शैली अलग होती है। कुछ बोर्ड के पास बैठकर तेज़ी से सीखते हैं, तो कुछ खिड़की से बाहर देखते हुए जीवन की सच्चाइयों को समझते हैं। पीछे बैठने का मतलब आलसी होना नहीं, बल्कि अलग दिशा में सोचने की स्वतंत्रता है।
आरव की कहानी से बैक बेंचर्स को प्रेरणा
आरव अब एक मशहूर लेखक है। उसकी किताबें कई भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। जब भी वह किसी स्कूल या कॉलेज में अतिथि के रूप में जाता है, तो वह हमेशा यही कहता है—
'कभी किसी बैक बेंचर को कम मत आँकिए। शायद वही बच्चा आगे चलकर दुनिया को नई दृष्टि देने वाला हो।'
उसकी बातें सुनकर कई छात्र, जो आज भी क्लास के पीछे बैठते हैं, गर्व से मुस्कुराते हैं। वे जानते हैं कि उनकी पहचान सिर्फ सीट की स्थिति से नहीं, बल्कि उनके विचारों से तय होगी।
बैक बेंचर छात्र केवल सीट के आधार पर कमज़ोर नहीं होते, बल्कि उनकी सोच और दृष्टिकोण अक्सर अनोखे होते हैं। आरव की कहानी यह सिखाती है कि सही मार्गदर्शन और अवसर मिलने पर कोई भी छात्र अपनी प्रतिभा और क्षमता दिखा सकता है। इसलिए किसी को भी पीछे की बेंच पर बैठने के लिए जज नहीं करना चाहिए, क्योंकि वही व्यक्ति भविष्य में समाज को नई दिशा दिखाने वाला हो सकता है।