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राज कपूर: हिंदी सिनेमा का शोमैन और समाजवादी सोच का प्रतिबिंब

राज कपूर: हिंदी सिनेमा का शोमैन और समाजवादी सोच का प्रतिबिंब

राज कपूर (1924–1988) हिंदी सिनेमा के ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अभिनय, निर्देशन और निर्माण—इन तीनों क्षेत्रों में खुद को स्थापित किया। उन्हें 'हिंदी फिल्मों का सबसे बड़ा शोमैन' कहा जाता है। उनकी फ़िल्में सिर्फ मनोरंजन नहीं थीं, बल्कि उनमें समाज के यथार्थ की गूंज भी सुनाई देती थी, खासकर जवाहरलाल नेहरू के समाजवाद से प्रेरित आदर्शों की। राज कपूर की लोकप्रियता भारत तक सीमित नहीं थी; सोवियत संघ और मध्य-पूर्व के देशों में भी वे भारत का सांस्कृतिक प्रतीक बन गए थे।

प्रारंभिक जीवन और फिल्मी शुरुआत

राज कपूर ने अपना फिल्मी सफर बहुत कम उम्र में शुरू किया था। जब वे सिर्फ 11 साल के थे, तब उन्होंने 'इंकलाब' नाम की फिल्म में छोटा-सा रोल किया। इसके बाद उन्होंने बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो में सहायक के तौर पर काम किया, जहां वे क्लैपर बॉय जैसे छोटे-छोटे काम करते थे। इसी दौरान उन्होंने सिनेमा की बारीकियां सीखीं और अपने भविष्य की नींव रखी। उनके पिता पृथ्वीराज कपूर को यकीन था कि राज पढ़ाई में चाहे अच्छे न हों, लेकिन फिल्मी दुनिया में जरूर नाम कमाएंगे।

निर्देशक और निर्माता के रूप में उदय

राज कपूर ने 1948 में 'आग' फिल्म से निर्देशन और निर्माण की शुरुआत की, लेकिन यह फिल्म ज्यादा नहीं चली। इसके बाद 1949 में उन्होंने 'बरसात' नाम की फिल्म बनाई, जिसने उन्हें एक सफल निर्देशक और निर्माता के रूप में पहचान दिलाई। इस फिल्म में उन्होंने नई टीम और संगीतकारों शंकर-जयकिशन के साथ काम किया, जो आगे चलकर उनके साथ लंबे समय तक जुड़े रहे। 'बरसात' का संगीत और भावनात्मक कहानी लोगों को बहुत पसंद आई, और इसी फिल्म से राज कपूर एक सच्चे फिल्म स्टार बन गए।

‘आवारा’ से अंतरराष्ट्रीय पहचान

1951 में आई फिल्म 'आवारा' ने राज कपूर को न सिर्फ भारत में, बल्कि दुनिया के कई देशों में मशहूर कर दिया। यह फिल्म सोवियत संघ, चीन और मिस्र जैसे देशों में इतनी ज्यादा पसंद की गई कि वहां के लोग राज कपूर को भारत का सांस्कृतिक चेहरा मानने लगे। उनके अभिनय और कहानी कहने के अंदाज़ ने दुनियाभर के दर्शकों का दिल जीत लिया। यहां तक कि चीन के नेता माओ त्से तुंग ने भी कहा था कि 'आवारा' उनकी सबसे पसंदीदा फिल्मों में से एक है।

‘श्री 420’ और समाजवाद की झलक

1955 में रिलीज़ हुई राज कपूर की फिल्म ‘श्री 420’ ने यह दिखाया कि कैसे तरक्की और शहरी चमक-धमक के पीछे इंसान की सच्चाई और ईमानदारी खो सकती है। फिल्म में राज कपूर ने एक आम आदमी के संघर्ष को बड़े ही सरल और भावुक अंदाज़ में पेश किया। इसका प्रसिद्ध गाना 'मेरा जूता है जापानी' आज भी देशभक्ति और भारतीय पहचान का प्रतीक माना जाता है।

विविध प्रयोग और असफलताएं

राज कपूर ने अपने करियर में कई तरह के प्रयोग किए। 1953 की ‘आह’ और 1958 की ‘फिर सुबह होगी’ जैसी फिल्में भावनात्मक और सुंदर थीं, लेकिन ये बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा नहीं चलीं। इसके बावजूद उन्होंने ‘बूट पॉलिश’ जैसी अलग सोच वाली फिल्म बनाई, जिसमें खुद नहीं दिखे लेकिन बच्चों की मासूम एक्टिंग और फिल्म की भावुक कहानी ने लोगों का दिल छू लिया।

कलात्मकता की ऊँचाई: ‘जागते रहो’ और ‘तीसरी कसम’

‘जागते रहो’ को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘ग्रैंड प्री’ पुरस्कार मिला। जबकि ‘तीसरी कसम’, जो फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर आधारित थी, ने राज कपूर के अभिनय के शिखर को दर्शाया। इसमें उन्होंने सिर्फ 1 रुपये पारिश्रमिक लिया था।

‘मेरा नाम जोकर’—एक सपना, एक दर्द

राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ 1970 में आई थी और यह उनके दिल के बेहद करीब थी। इस फिल्म में उन्होंने एक जोकर के किरदार के ज़रिए अपने जीवन की भावनाएं, संघर्ष और अकेलापन दिखाया। यह फिल्म बहुत लंबी और भावुक थी, इसलिए उस समय लोगों को समझ नहीं आई और फ्लॉप हो गई। लेकिन धीरे-धीरे लोगों ने इसकी गहराई को महसूस किया और आज इसे एक क्लासिक फिल्म माना जाता है, जो भारतीय सिनेमा की अनमोल धरोहर है।

चरित्र भूमिकाएं और निर्देशन की वापसी

‘मेरा नाम जोकर’ के बाद राज कपूर ने नायक की भूमिकाएं कम कर दीं और चरित्र अभिनेता के रूप में कुछ फिल्मों में काम किया। लेकिन उन्होंने निर्देशन नहीं छोड़ा। 1973 में ‘बॉबी’ से उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर वापसी की। अपने बेटे ऋषि कपूर और नई अभिनेत्री डिंपल कपाड़िया को लॉन्च करते हुए उन्होंने बिना बड़े स्टार्स के भी ब्लॉकबस्टर बनाई।

‘सत्यम शिवम् सुंदरम्’, ‘प्रेम रोग’ और ‘राम तेरी गंगा मैली’

इन फिल्मों में राज कपूर ने तकनीकी गुणवत्ता, भावनात्मक गहराई और सामाजिक विषयों को बखूबी मिलाया। ‘प्रेम रोग’ में उन्होंने विधवा पुनर्विवाह जैसे गंभीर विषय को संवेदनशीलता से दिखाया। ‘राम तेरी गंगा मैली’ ने भी व्यापक सफलता हासिल की और उनकी निर्देशन क्षमता को फिर साबित किया।

अधूरी विरासत: ‘हिना’

‘हिना’ राज कपूर का आखिरी सपना था, जिसमें उन्होंने भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को एक प्यार भरी कहानी के ज़रिए दिखाने की कोशिश की थी। लेकिन अफसोस की बात है कि 1988 में राज कपूर के निधन से पहले ही उनका यह सपना अधूरा रह गया। बाद में उनके बेटे रणधीर कपूर ने इस फिल्म को पूरा किया और दर्शकों के सामने वह कहानी पेश की, जो उनके पिता की सोच और भावनाओं को दर्शाती थी।

राज कपूर सिर्फ एक अभिनेता या निर्देशक नहीं थे, वे एक सोच, एक विचारधारा थे। उन्होंने भारतीय सिनेमा को एक सामाजिक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया। चाहे ‘आवारा’ हो, ‘श्री 420’ हो या ‘मेरा नाम जोकर’—हर फिल्म में उन्होंने मानवीय भावनाओं, सामाजिक विसंगतियों और व्यक्ति की आंतरिक यात्रा को संवेदनशीलता से दिखाया। वे न केवल 'शोमैन' थे, बल्कि हिंदी सिनेमा की आत्मा थे।

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